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प्रसंगवश : … तीन दशक पहले ही प्रदेश को मिल सकता था यादव मुख्यमंत्री

भोपाल। प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव की छह माह पहले काफी चर्चा थी। एक यादव को मुख्यमंत्री का पद देकर भाजपा ने सियासी जगत में खलबली मचा दी थी। उस समय शायद कांग्रेस के कुछ नेताओं को एक बात काफी खली होगी, जो गाहे-बगाहे भाजपा के लोग सुनाते भी रहते हैं। जी हां, कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति के चक्कर में एक यादव चेहरा मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गया था। उनका नाम था सुभाष यादव। उनकी गिनती कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं में होती थी। वह प्रदेश के उपमुख्यमंत्री तो बने, लेकिन सर्वोच्च पद नहीं मिला।


खरगोन जिले के किसान परिवार में जन्मे सुभाष यादव अब इस दुनिया में नहीं हैं। 26 जून को उनकी 11 वीं पुण्यतिथि है। उनके सुपुत्रों पूर्व केंद्रीय कृषि राज्यमंत्री अरुण यादव एवं कसरावद के विधायक सचिन यादव ने बताया कि प्रतिवर्षानुसार बाबूजी की 11वीं पुण्यतिथि भक्ति दिवस के रुप में हमारे पैतृक गांव बौरावां में मनाई जाएगी।
ज्ञातव्य है कि अरुण यादव मध्य प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रहे हैं। हालांकि जब भी मौका मिलता है राज्य के भाजपा नेता स्वर्गीय सुभाष यादव का जिक्र कर कांग्रेस पर हमला करने से नहीं चूकते। दो साल पहले भाजपा के एक नेता ने दिग्विजिय सिंह के ट्वीट पर अरुण यादव पर तंज कसते हुए कहा था, ‘आप उनके साथ हो जिन्होंने आपके पिताजी का लगातार अपमान किया। काबिल होने के बावजूद दिग्विजय सिंह और इनके गुरु अर्जुन सिंह ने मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया। सिर्फ इसलिए क्योंकि सुभाष जी पिछड़े वर्ग (यादव) से आते थे।’ खुद शिवराज सिंह चौहान भी यही बात कह चुके हैं। इस तरह से देखें तो मध्य प्रदेश में यादव राजनीति नई बात नहीं है। कांग्रेस की इसी कमजोर कड़ी को भाजपा ने पकड़ा और यादव-आदिवासी नेताओं को मुख्यमंत्री बनाया, लेकिन 31 साल पहले कांग्रेस चूक गई थी।

पार्टी सूत्रों का कहना है कि 1993 में दिग्विजय सिंह के राजनीतिक गुरु अर्जुन सिंह सुभाष यादव को मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे। हालांकि मुख्यमंत्री दिग्विजय ही बने। अगर सुभाष यादव को कमान मिलती तो मध्य प्रदेश में कांग्रेस को पहला ओबीसी मुख्यमंत्री बनाने का श्रेय मिल जाता। बाद में 2003 में भाजपा ने उमा भारती को मुख्यमंत्री बनाकर सारा श्रेय लूट लिया। यही नहीं, अब डॉ. मोहन यादव को मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा ने कांग्रेस को मुंह की खिला दी है।

राजनीतिक पंडितों की मानें तो 1993 में दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री और सुभाष यादव उपमुख्यमंत्री बने थे। दोनों के रिश्ते सामान्य नहीं थे। दोनों राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी हुआ करते थे क्योंकि दोनों मुख्यमंत्री बनना चाहते थे। इससे पहले अर्जुन सिंह की सरकार के समय दोनों अच्छे दोस्त माने जाते थे। राजनीतिक पंडित कहते हैं कि सुभाष यादव की महत्वाकांक्षाएं पूरी न हो सकीं। उनका रुख बदलने लगा तो दिग्विजय ने यादव को अनदेखा करना शुरू कर दिया। इसके चलते शराबबंदी समेत कई मुद्दों पर यादव दिग्विजय सरकार के लिए ही चुनौती बन गए। अंततः उन्हें मंत्रिमंडल से हटा दिया गया।

सुभाष यादव 1993 में खरगोन जिले की कसरावद विधानसभा से जीतकर मध्य प्रदेश के उपमुख्यमंत्री बने थे। तीसरी बार विधायक बनने पर उन्हें प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष भी बनाया गया था।

बता दें कि मध्य प्रदेश में दलित, आदिवासी और ओबीसी की आबादी काफी ज्यादा है फिर भी कांग्रेस ने इस समुदाय से कभी मुख्यमंत्री नहीं बनाया। एक साक्षात्कार में स्वयं अरुण यादव ने कहा था, ‘पुरानी बातों में जाने से क्या मिलेगा… मेरे पिताजी ने भी कोशिश की थी पर सफल नहीं हो पाए।’ बताते हैं कि 2008 के चुनाव में सुभाष यादव की हार की मुख्य वजह दिग्विजय सिंह ही थे, लेकिन दिग्विजय ने कभी सामने आकर ‘खेला’ नहीं किया। सुभाष यादव (1980 – 1989) सांसद रहे, लेकिन कभी मुख्यमंत्री नहीं बन पाए।

आंखें खोल देने वाला राजनैतिक सच यह है कि चार दशक तक कांग्रेस मध्य प्रदेश की सत्ता में रही, लेकिन 20 साल ब्राह्मण, 18 साल ठाकुर और कुछ साल बनिया मुख्यमंत्री रहे, अर्थात शीर्ष पर सवर्ण हावी रहे। ऐसा तब था जब आजादी के बाद से हिंदी भाषी पट्टी के दलित और आदिवासी कांग्रेस के साथ रहे। हालांकि अब वो समीकरण गड़बड़ा गया है। 2021 की एक रिपोर्ट के मुताबिक मध्य प्रदेश में सवर्ण करीब 22 प्रतिशत, दलित करीब 15.6 प्रतिशत, आदिवासी करीब 21.1 प्रतिशत बाकी ओबीसी और अल्पसंख्यक करीब 50.09 प्रतिशत हैं।

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