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श्यामा प्रसाद मुखर्जी: अगर ये न होते तो पश्चिम बंगाल नहीं होता भारत का हिस्सा

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का नाम जब भी सामने आता है तो एक हिंदूवादी नेता की छवि उभरती है. उनको जनसंघ का संस्थापक तो माना ही जाता है, जो बाद में भारतीय जनता पार्टी बनी पर एक देश, एक निशान, एक विधान और एक प्रधान के संकल्प के अगुवाकार के रूप में भी उनको जाना जाता है. हालांकि, भारत के विकास में भी उनका बड़ा योगदान है. यहां तक कि अगर वह न होते तो शायद आज पश्चिम बंगाल भारत का हिस्सा न होता. पुण्यतिथि पर आइए जानते हैं इस राष्ट्रवादी नेता के योगदान के बारे में.

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जन्म 6 जुलाई 1901 को हुआ था. उनके पिता आशुतोष मुखर्जी कलकत्ता हाईकोर्ट के जज थे. केवल 33 साल की उम्र में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी कलकत्ता विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर बने थे. उन्हीं के कार्यकाल में गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में बांग्ला में भाषण दिया था.

 

मुस्लिम लीग की सरकार का किया विरोध

यह साल 1937 की बात है, भारत सरकार अधिनियम 1935 के तहत प्रांतीय चुनाव हुए थे और बंगाल में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला था. बंगाल में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सामने थी तो मुस्लिम लीग और कृषक प्रजा पार्टी को भी अच्छी सीटें मिली थीं. हालांकि, बंगाल में सरकार बनाई लीग ने. डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने मुस्लिम लीग सरकार की तत्कालीन नीतियों का मुखर विरोध किया. तत्कालीन सरकार ने बंगाल विधानसभा में कलकत्ता म्युनिसिपल बिल रखा था, जिसमें मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन का प्रावधान किया गया था. इसका भी डॉ. मुखर्जी ने विरोध किया था.

डॉ. मुखर्जी ने बनाई सरकार

फिर साल 1941 में मुस्लिम लीग की सरकार गिर गई और डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बंगाल में फजलुल हक के साथ गठबंधन की सरकार बनाई. इस सरकार में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी वित्तमंत्री बने. इसी बीच जब देश की आजादी की चर्चा शुरू हुई तो डॉ. मुखर्जी ने बंगाल विभाजन की मांग उठा दी. कहा जाता है कि साल 1905 में भी उन्होंने हिंदू आबादी की अधिकता के चलते बंगाल विभाजन का समर्थन किया था. फिर आजादी के वक्त ऐसा लगने लगा कि पूरा बंगाल ही पूर्वी पाकिस्तान का हिस्सा बन जाएगा तो उन्होंने हिंदू आबादी की अधिकता के आधार पर एक बार फिर बंगाल के विभाजन की मांग उठा दी.

हिंदुओं के अधिकार को लेकर डटे

इस दौरान हिंदुओं के अधिकार को लेकर वह आंदोलन पर डटे रहे. डॉ. मुखर्जी का मानना था कि पूरा बंगाल अगर पाकिस्तान में चला गया, तो मुस्लिम अधिकता वाले इलाकों में हिंदुओं पर हमले बढ़ जाएंगे. इसलिए हिंदू बहुल पश्चिमी बंगाल को भारत में बनाए रखने के लिए इसका विभाजन जरूरी था. इसके लिए समर्थन जुटाने के मकसद से मुखर्जी ने उन दिनों कई दौरे किए और राज्य के सभी क्षेत्रों में हिंदू सम्मेलन आयोजित किए. इसके बाद बंगाल का विभाजन हुआ और पूरा बंगाल पाकिस्तान के हिस्सा में नहीं गया. अगर ऐसा न होता तो पश्चिम बंगाल आज बांग्लादेश (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान) का हिस्सा होता.

देश के पहले उद्योग एवं आपूर्ति मंत्री बने

साल 1947 में देश जब आजाद हुआ पंडित जवाहरलाल नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री बने तो खुद महात्मा गांधी और सरदार वल्लभभाई पटेल ने डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को तत्कालीन केंद्रीय मंत्रिपरिषद में शामिल करने की सिफारिश की. तब डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी देश के पहले उद्योग एवं आपूर्ति मंत्री बनाए गए. उन्हीं के कार्यकाल में ऑल इंडिया हैंडीक्राफ्ट बोर्ड, ऑल इंडिया हैंडलूम बोर्ड और खादी ग्रामोद्योग की स्थापना की गई थी. साल 1948 में उनके कार्यकाल में ही इंडस्ट्रिलय फाइनेंस कॉरपोरेशन की स्थापना हुई. पहला भारत निर्मित लोकोमोटिव एसेंबल्ड पार्ट उन्हीं के कार्यकाल में बना और चितरंजन लोकोमोटिव फैक्टरी भी शुरू की गई थी.

 

कश्मीर में हुआ था निधन

बाद में पंडित नेहरू के मंत्रिमंडल से डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इस्तीफा दे दिया, क्योंकि वह चाहते थे कि देश के दूसरे हिस्सों के समान ही कश्मीर में भी सारे नियम कानून-लागू होंगे. इसलिए इस्तीफे के बाद वह कश्मीर जा रहे थे. वह 11 मई 1953 को श्रीनगर में घुसे तो शेख अब्दुल्ला की सरकार ने उनको गिरफ्तार कर लिया. उनके साथ दो सहयोगियों को भी गिरफ्तार किया गया था. सबको पहले श्रीनगर की सेंट्रल जेल भेजा गया पर बाद में शहर के बाहर एक कॉटेज में रखा गया. वह एक महीना से ज्यादा कैद में रहे और इसी दौरान तबीयत बिगड़ती चली गई.

डॉ. मुखर्जी को 22 जून 1953 को सांस लेने में तकलीफ महसूस हुई तो उनको अस्पताल में शिफ्ट किया गया, जहां पता चला कि उनको हार्ट अटैक आया था. इसके अगले ही दिन कश्मीर सरकार ने घोषणा की थी कि 23 जून को भोर में 3:40 बजे हार्ट अटैक से डॉ. मुखर्जी का निधन हो गया.

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