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पौराणिक कथाओं के उस ‘त्रिशंकु’ की कहानी, जो खंडित जनादेश का प्रतीक बन गया

लोकसभा चुनाव 2024 के लिए वोटिंग आज खत्म हो जाएगी और फिर सबकी नजर रहेगी देश की नई लोकसभा और नई सरकार पर. जब भी ऐसे मौके आते हैं एक शब्द लगातार आशंकाओं-अटकलों के साथ माहौल में तैरता है और वो है त्रिशंकु लोकसभा का. आखिर कहां से आया ये शब्द?

साल 1989 भारतीय राजनीति के लिहाज से वह वर्ष है, जब देश में गठबंधन वाली राजनीति की शुरुआत हुई थी. असल में इस वर्ष जब नौवीं लोकसभा के गठन के लिए आम चुनाव हुए तो जनादेश के रूप में देश को ‘त्रिशंकु लोकसभा’ मिली. यह उस समय उभरा एक बड़ा राजनीतिक संकट था, जिसमें किसी भी दल को बहुमत का जादुई आंकड़ा हासिल नहीं हुआ था. यह अधर में लटकने जैसी स्थिति थी. इसलिए इसे ‘त्रिशंकु संसद’ का नाम मिला.

सवाल उठता है कि, विशुद्ध राजनीति में अधर में लटकने वाले स्थिति के लिए ‘त्रिशंकु’ शब्द का प्रयोग क्यों हुआ? यह कहां से आया और इसके क्या मायने हैं? असल में त्रिशंकु पुराण कथाओं में दर्ज एक किरदार है, पात्र है. यह एक राजा का नाम था, लेकिन पौराणिक कथाओं के किरदार का भारतीय संसद से क्या कनेक्शन. इसी का जवाब तलाशने के लिए पौराणिक कथाओं के पन्ने पलटते हैं.

भगवान श्रीराम ने जिस सूर्यवंश में, महाराज इक्ष्वाकु के कुल में जन्म लिया था, ये कहानी उसी कुल से जुड़ी हुई है. इक्ष्वाकु के वंश में त्रेतायुग में एक राजा हुए निबंधन. निबंधन प्रतापी राजा मुचकुंद के भाई थे. मुचकुंद बहुत वीर थे. इतने कि एक बार देवासुर संग्राम में उन्होंने देवताओं की ओर से युद्ध किया था. कथा के अनुसार यह युद्ध कई हजार वर्ष तक चला. असुरों की हार हुई और देवता विजयी हुए. इस युद्ध में मुचकुंद थककर चूर हो चुके थे, इसलिए जब देवताओं ने उनसे वरदान मांगने के लिए कहा तो सांसारिक मोह से दूर हो चुके मुचकुंद ने सिर्फ सुकून की नींद मांगी. देवताओं ने उनके आग्रह पर धरती पर रैवतक पर्वत की एक गुप्त गुफा की राह दिखाई और मुचकुंद वहां सोने चले गए. हजारों वर्षों के थके मुचकुंद की नींद भी युगों जितनी लंबी हो गई. वह त्रेतायुग में ऐसा सोए कि उनका दोबारा वर्णन द्वापरयुग में श्रीकृष्ण के समय में आता है. श्रीकृष्ण ने जरासंध के मित्र काल्यवन को मारने के लिए सोते हुए मुचकुंद का सहारा लिया था, क्योंकि काल्यवन युद्ध में नहीं हराया जा सकता था.

काल्यवन को अपने पीछे भगाते हुए कृष्ण रैवतक पर्वत की इसी गुफा में घुस गए, जहां मुचकुंद सो रहे थे. कृष्ण ने अपना पीला पटका उनके ऊपर डाल दिया और खुद ओट लेकर छिप गए. काल्यवन भीतर आया तो सोचा कि कृष्ण बहाने से यहां लेट गए हैं तो वह लात मार-मार कर जगाने लगा. देवताओं ने मुचकुंद को वरदान दिया था कि वह जब चाहेंगे तो अपने ही आप जागेंगे, किसी ने उन्हें जबरन जगाने की कोशिश की तो वह उनके देखते ही भस्म हो जाएगा. काल्यवन के लात मारने से मुचकुंद की आंख खुल गई. उन्होंने जैसे ही सामने खड़े काल्यवन को देखा तो वह भस्म हो गया. इस तरह कृष्ण ने अपने एक और शत्रु को मार गिराया था.

इन्हीं मुचकुंद के भाई थे निबंधन. देव असुर संग्राम में जाने के कारण मुचकुंद ने राज्य निबंधन को सौंप दिया था. निबंधन के पुत्र हुए सत्यव्रत. जैसा उनका नाम था, उसके ही विपरीत उनका आचरण था. इससे निबंधन बहुत चिंतित रहते थे. हालांकि सत्यव्रत प्रजा पालन में कोई कसर नहीं रखते थे, लेकिन बात जब लालसा और कामना की आती थी तो उसके आगे वह सब भूल जाते थे. इसी कामना के कारण एक दिन उन्होंने एक ब्राह्मण लड़की का जबरन हरण कर लिया और बिना किसी संस्कार के उसके साथ रहने लगे. हरिवंश पुराण में इस कथा का वर्णन किया गया है.

निबंधन को जब इसकी जानकारी मिली तो उन्होंने अपने पुत्र को राज्य से निकाल दिया और अपनी वर्ण जाति से भी बाहर कर दिया. इस तरह सत्यव्रत अब क्षत्रिय नहीं रह गया था. सत्यव्रत राज्य से बाहर निकलकर वन में रहने लगा. वहीं पास में ऋषि विश्वामित्र का आश्रम भी था. सत्यव्रत के धर्मविरुद्ध आचरण के कारण उस स्थान पर भीषण अकाल पड़ गया. ऐसे में धीरे-धीरे शाक-सब्जियां और फसलें खत्म हो गईं. भूख मिटाने के लिए शिकार पर निर्भर रहना पड़ा. इस समय ऋषि विश्वमित्र तपस्या के लिए गए हुए थे, लिहाजा उनका परिवार भी भूख से पीड़ित था. तब सत्यव्रत ने उनके परिवार की बहुत सेवा की (जैसा कि सत्यव्रत प्रजापालक था) एक दिन जब वन में कोई आहार नहीं मिला और ऋषि पुत्र भूख से बिलबिला रहे थे. ऐसे में कोई उपाय न देखकर सत्यव्रत ने एक पालतू पशु को मार दिया और उसका मांस विश्वमित्र के पुत्रों के साथ खाया. ऋषि वशिष्ठ जो कि पहले ही सत्यव्रत से क्रोधित थे, पशु वध की बात सुनकर उन्होंने उसे महापातक श्राप दे दिया, जिसके कारण सत्यव्रत के सभी पुण्य नष्ट हो गए.

ऋषि वशिष्ठ ने कहा कि पहले तो तुमने धर्म विरुद्ध होकर कन्या का अपहरण किया. फिर पशुवध किया और तीसरा उसका मांस भी खाया. इसलिए तुम्हारे सिर पर तीनों पापों के प्रतीक तीन कांटे उभर आएंगे और तुम सारे पुण्य खो दोगे. ऋषि वशिष्ठ के श्राप के कारण सत्यव्रत के सिर पर तीन सींगें निकल आईं, जिसके कारण वह सत्यव्रत से त्रिशंकु कहलाया. महापातक श्राप मिलने के बाद चिंतित त्रिशंकु एक दिन आत्महत्या करने जा रहा था कि सौभाग्य से उसी दिन विश्वामित्र भी आश्रम लौटे थे. उन्हें जब पता चला कि उनके पीछे उनके परिवार का पालन सत्यव्रत ने किया है तो वह उसके पास पहुंचे. सत्यव्रत अपना सिर काटने ही वाला था कि विश्वामित्र ने उसे बचा लिया और उसकी व्यथा सुनी. तब विश्वामित्र ने सत्यव्रत को अपने पुण्य का एक अंश देकर महापातक के प्रभाव को कम कर दिया और फिर से राजा बनने और प्रतापी सत्यवादी पुत्र होने का वरदान दिया. सत्यव्रत यानी त्रिशंकु का यही पुत्र राजा हरिश्चंद्र कहलाया, जिनके सत्य की मिसाल सूर्य और चंद्रमा भी देते हैं. राज्य भोगकर और अपने पुत्र को राजा बनाकर त्रिशंकु वनवासी हो गया और अब उसकी भी इच्छा स्वर्ग जाने की थी.

इसलिए उसने ऋषि वशिष्ठ से महापातक श्राप का प्रभाव कम करने और यज्ञ करके उन्हें भी स्वर्ग का अधिकारी बनाने की इच्छा प्रकट की. उसने कहा कि आपके श्राप के कारण मरने का बाद तो मैं स्वर्ग नहीं जा सकता, इसलिए मुझे जीवित ही स्वर्ग भेज दीजिए. ऋषि वशिष्ठ और ऋषि विश्वामित्र में पुराना बैर था और दोनों ही एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी भी थे. ऋषि वशिष्ठ ने त्रिशंकु सत्यव्रत के लिए यज्ञ करने से मना कर दिया. तब त्रिशंकु वशिष्ठ के पुत्रों के पास गए और उन्हें धन का लालच देकर यज्ञ करने के लिए मनाने लगे. ऋषिपुत्रों को क्रोध आ गया और उन्होंने त्रिशंकु को फिर से श्राप दे दिया.

इसके बाद त्रिशंकु एक बार फिर ऋषि विश्वामित्र के पास पहुंचे. उन्हें अपनी इच्छा बताई और ऋषि वशिष्ठ के श्राप की बात का भी जिक्र किया. विश्वामित्र ने उनके लिए स्वर्गारोहण यज्ञ करने का निश्चय किया. इसके लिए उन्होंने देश भर के ब्राह्मणों को बुलावा भेजा और देवताओं को भी मंत्र शक्ति से बुलाने लगे. वशिष्ठ और एक महोदय नाम के ऋषि ने इस यज्ञ का विरोध किया और कहा कि न तो यजमान ही ठीक है और न ही होता (यज्ञ कराने वाला) ब्राह्मण है. देवताओं ने भी यज्ञ में भाग लेने से मना कर दिया. असल में विश्वामित्र पहले एक राजा थे, जो बाद में ऋषि बने थे. इस पर तमतमाए विश्वामित्र ने यज्ञ में घी डालने वाला सुवा उठाया और त्रिशंकु को सशरीर ही मंत्रों के प्रभाव से स्वर्ग भेजने लगे. जैसे ही त्रिशंकु सशरीर स्वर्ग के द्वार पर पहुंचे तो देवताओं में खलबली मच गई. इंद्र ने अपना जोर लगाया और त्रिशंकु को नीचे धकेल दिया.

 

नीचे गिरते हुए त्रिशंकु उल्टे हो गए और उन्होंने जोर से चिल्लाकर विश्वामित्र को पुकारा. जब विश्वामित्र ने यह देखा तो तुरंत ही अपना सारा पुण्य त्रिशंकु को सौंप दिया और उसके बल पर ही उन्हें आकाश में जहां के तहां रोक दिया. अब त्रिशंकु न ऊपर जा सकते थे और न ही नीचे आ सकते थे. लटकी ही अवस्था में रह गए. यही स्थिति भारतीय संसद में बहुमत न मिलने पर बनती है और इसलिए ही उसे त्रिशंकु संसद कहते हैं.

इधर, क्रोधित विश्वमित्र ने नई सृष्टि, नया स्वर्ग, नए सप्तऋषि, नया इंद्र और नए मानव बनाने की घोषणा कर दी. उन्होंने नया स्वर्ग बनाकर त्रिशंकु के उसमें स्थापित किया. नए सप्तऋषि बनाकर स्थापित किए. अब वह नए मनुष्य और नए इंद्र बनाने की प्रक्रिया में ही थे कि त्रिदेव और देवता प्रकट हो गए. उन्होंने विश्वामित्र से ऐसा न करने को कहा, तब विश्वामित्र ने उनसे केवल त्रिशंकु स्वर्ग मंडल को मान्यता देने की शर्त रखी. देवताओं ने उनकी बात मान ली और त्रिशंकु अपने स्वर्ग मंडल में अकेले रहते हैं. आकाश में दक्षिण दिशा में एक तारे का नाम भी त्रिशंकु है. कहते हैं कि यह वही त्रिशंकु हैं. स्वर्ग से उलटा लटकने के कारण त्रिशंकु के मुंह से लार बह निकली. इसी लार से कर्मनाशा नदी का जन्म हुआ. मान्यता है कि कर्मनाशा नदी में नहाने से पुण्य नष्ट हो जाते हैं. कई सालों तक कर्मनाशा नदी, कोसी की तरह बिहार के लिए बाढ़ आपदा का कारण रही है. हर साल मानसून में यह नदी विकराल हो जाती है.

उधर, जब देवता विश्वामित्र को नई सृष्टि के निर्माण से रोकने आए थे, तब उनके हाथ में कपालनुमा एक पिंड था. देवताओं के अनुरोध के कारण ऋषि ने उस कपाल का निर्माण भी रोक दिया था. मान्यता है कि विश्वामित्र नए मानव रच रहे थे और यह उन्हीं का कपाल था. देवताओं ने इसे भी फलों की श्रेणी में रखा और श्रीफल की संज्ञा दी. मान्यता है कि नारियल ही वह कपाल है, जो विश्नामित्र बना रहे थे. इसलिए नारियल एक चेहरे की तरह लगता है, जिसमें दो आंखें और मुंह की संरचना दिखाई देती है.

ये थी कहानी त्रिशंकु की, जिसके कारण भारतीय राजनीति की एक विशेष स्थिति को नाम मिला है. त्रिशंकु की इस कथा का वर्णन, महर्षि वाल्मीकि की रामायण, हरिवंश पुराण और विष्णु पुराण में मिलता है.

 

 

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